वन भूमि खाली कराने से पहले अधिकारों की रक्षा के लिए राज्य सरकार तत्काल हस्तक्षेप करेः सुदेश महतो

रांची। सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले ने झारखंड समेत देश के 16 राज्यों के 11 लाख से ज्यादा वनों पर आश्रित आदिवासी परिवारों और अन्य परंपरागत समुदायों के समक्ष वन भूमि से बेदखली का संकट खड़ा कर दिया है। इस आदेश के तहत वैसे सभी वनाधिकार दावे जिन्हें निरस्त कर दिया गया है, उन्हें वन भूमि से खाली कराया जाना है।

इससे झारखंड के जंगलों में गुजर-बसर कर रहे लगभग तीस हजार आदिवासी और परंपरागत समुदाय से जुड़े परिवारों को भी वन भूमि से बेदखल किया जाएगा। जाहिर है जंगलों में जीते लोगों की मुश्किलें बढ़ेगी। इसलिए राज्य सरकार तत्काल हस्तक्षेप करे।

सरकार उच्चतम न्यायालय में इस पर दखल करे व पुनरावलोकन याचिका दायर कर वन भूमि पर रह रहे आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए मजबूती से अपना पक्ष रखे।

दरअसल वनाधिकार कानून 2006 को सरकार अगर सख्ती और पारदर्शी तरीके से लागू करती, तो यह परिस्थितियां पैदा नहीं होती। झारखंड में आदिवासी समुदाय के लोग और जन संगठन कोर्ट के फैसले के बाद मुखर हैं। सरकार ने गंभीरता से इस मसले पर कदम नहीं उठाए, तो टकराव बढ़ सकते हैं।

हमें जो जानकारियां मिल रही है उस मुताबिक झारखंड राज्य में वनाधिकार के जो भी दावे निरस्त किये गए हैं उसकी सूचना ग्राम सभाओं और दावेदारों को नहीं दी गयी है। जबकि वनाधिकार कानून किसी भी स्तर पर आपत्ति होने की स्तिथि में समीक्षा का उत्तरदायी ग्राम सभा को मानता है। दावेदारों को अपील करने के मौके भी नहीं दिए गए हैं।

इसलिए सरकार से मेरा आग्रह है कि कानूनसम्मत प्रक्रिया के तहत सभी निरस्त दावों को ग्राम सभाओं को भेजा जाए और ग्राम सभाओं की अनुशंसा पर ही अग्रेतर कार्रवाई हो।

इसके अलावा राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे सकती है कि राज्य की वन भूमि में रह रहे लोग अतिक्रमकारी नहीं हैं। वनाधिकार कानून 2006 से लागू है और 13 दिसम्बर 2005 के पहले से वन भूमि पर गुजर-बसर कर रहे लोग इस कानून के तहत अतिक्रमणकारी नही माने जाएंगे, चाहे उन्होंने वनाधिकार कानून कर तहत दावा किया हो या नहीं।

वनाधिकार कानून के प्रावधानों के मुताविक, जब तक वन अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती तब तक आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासी किसी भी तरह से उन के परंपरागत वन संसाधनों से बेदखल नहीं किए जा सकते। ओड़िशा के नियामगिरी मामले में उच्चतम न्यायालय ने भी यह प्रस्थापना दी है कि जब तक वन अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं होती तब तक वन भूमि से बेदखली की कार्यवाही व भूमि हस्तांतरण की प्रक्रिया नहीं चलाई जा सकती है।

डॉ देवशरण भगत